
राजीव रंजन भारद्वाज वरिष्ठ भाजपा नेता
बिहार को अब अपने शासन की गुणवत्ता में बड़े बदलाव की जरूरत है। लेकिन क्या मौजूदा राजनीति इसे पूरा कर सकती है? अभी तक तो सत्ता के प्रति उसका जुनून जातिगत अंकगणित और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर ही अत्यधिक केंद्रित रहता आया है।
अगली बड़ी चुनावी लड़ाई इस साल के अंत में बिहार विधानसभा चुनाव के लिए होने जा रही है। इसी हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसके लिए भाजपा के प्रचार अभियान की शुरुआत भी कर दी। बिहार मंत्रिमंडल में भी फेरबदल किया गया है।
बिहार में तीन स्थापित राजनीतिक खिलाड़ी- भाजपा, राजद और जदयू- अलग-अलग गठबंधनों में बीते 30 सालों से सत्ता में आते रहे हैं। लेकिन उनकी राजनीति थकाऊ रूप से दोहराव वाली हो गई है। बिहार आज भी वहीं है, जहां तीन दशक साल पहले था- एक गरीब और पिछड़ा राज्य।
जाहिर है, राजनेता 13 करोड़ बिहारियों की आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं। भारत की सभ्यता का यह उद्गम-स्थल आज घोर गरीबी, अभावों, शैक्षिक पिछड़ेपन और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का गढ़ बना हुआ है। लालू यादव के पंद्रह साल के ‘जंगल राज’ के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता में आए थे तो सुशासन की उम्मीद जगी थी, लेकिन वह ज्यादा देर नहीं टिकी। राज्य फिर से अनैतिक गठबंधनों और कुप्रबंधन के दुष्चक्र में फंस गया है।
बिहार के विरोधाभास बहुत बड़े हैं : यह मानव संसाधन से समृद्ध राज्य है फिर भी बुनियादी अवसरों से वंचित है। उसके 25 प्रतिशत से अधिक युवा दूरदराज के राज्यों में आजीविका की खोज में जाने के लिए मजबूर हैं। कृषि में बिहार की 70 प्रतिशत वर्कफोर्स कार्यरत है, लेकिन उससे उनका निर्वाह भर ही हो पाता है।
औद्योगीकरण लगभग न के बराबर है। प्राथमिक शिक्षा की हालत अमूमन ऐसी है कि अगर स्कूल हैं तो शिक्षक नहीं हैं और शिक्षक हैं तो स्कूल नहीं हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य दयनीय है। उच्च शिक्षा केवल बेरोजगारों की फौज तैयार करती है।

राजद एम-वाय फॉर्मूले पर निर्भर रहती है, जो कि राज्य की अनुमानित रूप से 14 प्रतिशत यादव आबादी और 17 प्रतिशत मुस्लिमों की लामबंदी पर आधारित है। अन्य जातियां कुशासन के डर से भाजपा को वोट देती हैं। इन दो ध्रुवों के बीच जदयू अन्य उप-जातियों के सहारे अपना राजनीतिक अस्तित्व कायम रखती है, हालांकि उसका जनाधार लगातार घट रहा है।
मुख्य राजनीतिक दलों की यह तिकड़ी बिना किसी लोक-लाज के आपस में गठबंधन करती रहती है, लेकिन धरातल पर बहुत कम बदलाव होता है। बिहार के लोगों के हितों का धर्म और जाति की वेदी पर बलिदान कर दिया जाता है।
एक जैसे चेहरे चुनकर सत्ता में आते रहते हैं और जनता हर बार ठगी जाती है। बिहार में तब तक कुछ नहीं बदलेगा, जब तक कि उसके मतदाता यह न कह बैठें कि बस बहुत हो गया। लेकिन इसके लिए मतदाताओं को धर्म और जाति से ऊपर उठकर ऐसे लोगों को वोट देना होगा, जो उनके अपने जीवन को ठोस रूप से बदल सकें।
बिहार की राजनीति में जन सुराज पार्टी नए खिलाड़ी के रूप में मैदान में आई है, जिसका नेतृत्व प्रशांत किशोर कर रहे हैं। वे मतदाताओं से कह रहे हैं कि अपने बच्चों के भविष्य और बेहतर जीवन के लिए वोट दें और राजनेताओं को सत्ता में आने के लिए आपका इस्तेमाल न करने दें।
यह पुराने राजनीतिक फॉर्मूले से भिन्न भाषा है। जन सुराज एक नई पार्टी है, जिसे 2 अक्टूबर 2024 को लॉन्च किया गया था। इसके पहले किशोर ने बिहार के ग्रामीण इलाकों में दो साल तक 3000 किलोमीटर की पदयात्रा की थी।
दर्जनों पार्टियों की चुनावी जीत के सूत्रधार के रूप में किशोर की संगठनात्मक क्षमता और अथक काम करने की उनकी क्षमता तो जगजाहिर है और उम्र के चौथे दशक में होने के कारण वे बिहार की बड़ी युवा आबादी के साथ भी जुड़ते हैं। लेकिन क्या वे बिहार के मतदाताओं को एक नए ब्रांड की राजनीति को स्वीकार करने के लिए राजी कर पाएंगे, यह देखना बाकी है।
इस प्रसंग में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां याद आती हैं : ‘क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित विनीत सरल हो।’ बिहार को अहसास होना चाहिए कि लोकतंत्र में चाहे हजार खामियां हों, उसी के जरिए हाशिए पर रहने वाले लोग अपनी तकदीर लिख सकते हैं।
बिहार को शासन की गुणवत्ता में बड़े बदलाव की जरूरत है। लेकिन क्या मौजूदा राजनीति इसे पूरा कर सकती है? अभी तक तो सत्ता के प्रति उसका जुनून जातिगत गणित और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर ही केंद्रित रहता आया है।




