
पंकज कुमार, वरिष्ठ पत्रकार
बिहार की राजनीति में सामाजिक न्याय की राजनीति का प्रबल उदय मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के साथ हुआ था। इसने 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव को सत्ता में लाने में निर्णायक भूमिका निभाई थी। लालू ने ओबीसी,दलितों और मुस्लिम समुदाय के समर्थन से करीब 15साल तक प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से बिहार पर राज किया।

लेकिन,समय के साथ लालू की आरजेडी की राजनीति ‘मुस्लिम-यादव'(MY) समीकरण तक ही सीमित होकर रह गई। इससे पार्टी का जनाधार सिकुड़ता गया। अब तेजस्वी यादव इस समीकरण से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं और अति पिछड़ों (EBC) और दलित-महादलितों को फिर से पार्टी के साथ जोड़ने के प्रयासों में जुटे हैं।
अति पिछड़े और दलित वोट बैंक को राजद से जोड़ने के लिए हाथ-पैर मारने लगे तेजस्वी
बिहार में हुए 2022-23 के जातीय सर्वेक्षण के मुताबिक,अति पिछड़ा राज्य का सबसे बड़ा जातीय समूह है,जो 36% हैं। वहीं,दलितों की आबादी लगभग 20% है। इतना बड़ा वोट बैंक किसी भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाने के लिए काफी है।
2024 लोकसभा चुनाव में आरजेडी को भले ही सबसे ज्यादा वोट शेयर (22% से अधिक) मिला हो, लेकिन अति पिछड़ों और दलितों का पर्याप्त समर्थन न मिलने से पार्टी महज 4 सीटों पर ही सिमट गई। दूसरी, तरफ इनके व्यापक समर्थन से एनडीए फिर से बाजी मारने में सफल हो गया।


ऐसे में लालू के बेटे तेजस्वी यादव को यह एहसास हो चुका है कि केवल मुस्लिम-यादव समीकरण पर निर्भर रहने का जमाना अब लद चुका है। इसलिए उन्होंने अति पिछड़ों और दलितों के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए एक नया राजनीतिक समीकरण तलाशना शुरू कर दिया है। तेजस्वी की हालिया सभाएं और कार्यक्रम इन्हीं कोशिशों की ओर इशारा कर रहे हैं।
बिहार में पिछड़ों की राजनीति के जनक माने जाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री कर्पुरी ठाकुर अति पिछड़े समाज से थे,जो राज्य में आज भी सामाजिक न्याय के प्रतीक माने जाते हैं। लोकसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी सरकार ने उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न दिया था।
मजे की बात है कि तेजस्वी ने भी अब अपने पिता लालू प्रसाद यादव को वही सम्मान देने की मांग की है। जबकि,तेजस्वी को यह मालूम है कि उनके पिता एक सजायाफ्ता मुजरिम हैं और कानूनी कमजोरियों का लाभ उठाकर फिलहाल सरकारी बंगलों का आनंद उठा रहे हैं।


दरअसल तेजस्वी की मांग प्रतीकात्मक है,जो इसके माध्यम से अति पिछड़ों से लेकर दलितों और महादलितों को यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि लालू की वजह से ही इन वर्गों को कथित रूप से समाज में अपनी बात रख पाने का साहस मिला है।
तेजस्वी ने कर्पुरी ठाकुर की पुण्यतिथि और जयंती के मौके पर जनसभाएं करके यह जताने की कोशिश की है कि वह बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति को फिर से केंद्र में लाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि यादव और मुसलमान का उनकी पार्टी के साथ बने रहना अब मजबूरी बन चुकी है। ऐसे में वे चाहते हैं कि अगर दलितों और अति पिछड़ों का भी विश्वास जीत लें तो सत्ता की गारंटी भी मिल सकती है।
जो जाकारियां आ रही हैं,उसके मुताबिक आरजेडी अब पार्टी संगठन में अति पिछड़ों और दलितों को अधिक प्रतिनिधित्व देने की योजना बना रही है। इसके तहत इस साल अक्टूबर-नवंबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में अधिक से अधिक अति पिछड़ों और महादलितों-दलितों को टिकट देने की योजना है। इन्हें अनारक्षित सीटों से भी उतारने की तैयारी चल रही है, ताकि पार्टी का जनाधार बढ़ाया जा सके।
तथ्य यह है कि बिहार में अभी गैर-यादव ओबीसी और दलित-महादलित जेडीयू और एनडीए के पाले में है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अति पिछड़ा और महादलितों के बीच गहरी पैठ है और उनकी सरकार की कल्याणकारी योजनाएं भी तेजस्वी के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर खड़ी हैं।
2024 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी बिहार की 40 सीटों में से 23 पर लड़ी थी, जिनमें से वह सिर्फ 4 सीटें ही जीत सकी थी। उसने सिर्फ तीन अति पिछड़ों को टिकट दिया था और वे सारे के सारे हार गए। बाकी अधिकतर टिकट उसने यादव और कुशवाहों को दिया था,जो दबंग ओबीसी जातियों में गिनी जाती हैं। इसी तरह से मुस्लिम उम्मीदवारों पर भी पार्टी ने जमकर दांव लगाया था।
बिहार में आरजेडी की अगुवाई वाले महागठबंधन या इंडिया ब्लॉक में कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियां शामिल हैं। फिर भी लोकसभा चुनावों में 40 में 30 सीटें बीजेपी-जेडीयू की अगुवाई वाले एनडीए के खाते में चली गईं।
