
पटना.
अब बिहार की राजनीति ऐसी हो गयी है कि बिहार में भाजपा आज तक कोई ऐसा नेता नहीं उतार सका जिसके फेस पर चुनाव लड़ सके। मरता क्या नहीं करता इस कहावत के तर्ज पर अब भाजपा को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार में दैवीय शक्ति दिखने लगा है । यह मैं नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने कहा कि नीतीश कुमार के पास दैवीय शक्ति आ गई है. प्रगति यात्रा में मुख्यमंत्री जिस तरह से काम कर रहे हैं मतलब कहा जा सकता है कि जो चीज सोचा वह मिल गया. दिलीप जायसवाल ने कहा, कभी सोच भी नहीं सकता था कोई कि 40 मेडिकल कॉलेज बिहार में बन जाएगा. यह कोई मामूली बात नहीं है.लगता है नीतीश कुमार जी में कोई दैवीय शक्ति आ गई है.बिहार को विकसित बिहार बनाने के लिए उन्होंने मजबूत इच्छाशक्ति प्रगति यात्रा में दिखाई है.बीजेपी नेता ने कहा, एक राजनीतिक दल के अध्यक्ष से अलग हटकर एक व्यक्ति के रूप में भी देखकर मैं अचंभित हूं.उन्होंने कहा कि जो अच्छा काम कर सकता है उसके अंदर दैवीय शक्ति होती है.मुझे तो यही एहसास हुआ है.


यह अहसास दिलीप जायसवाल का ही नही है, कमोवेश भाजपा का हर नेता अब नीतीश कुमार को अपना तारणहार मान रहा है। दरअसल, सामने से जब नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव यह बार-बार कहते हैं कि सीएम नीतीश अब टायर्ड और रिटायर्ड हैं, तो दिलीप जायसवाल की ये बातें निश्चित तौर पर बीजेपी के सियासी प्लान का बड़ा हिस्सा है. जाहिर है जिन शब्दों से दिलीप जायसवाल ने सीएम नीतीश कुमार को नवाजा है वह अपने आप में बड़े राजनीतिक महत्व का है.एक तो यह कि एनडीए के छतरी तले बीजेपी नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही बिहार चुनाव में आगे बढ़ेगी, दूसरा यह कि नीतीश कुमार की छवि इस कदर बड़ा दिखाना चाहते हैं जिससे बिहार में उनके मुकाबिल को दिखे ही नहीं.
बता दें कि बिहार के की राजनीति में मुख्य तौर पर दो गठबंधनों का मुकाबला है. एक ओर एनडीए है तो दूसरी तरफ महागठबंधन. एनडीए में बीजेपी और जेडीयू जहां प्रमुख पार्टियां हैं, वहीं महागठबंधन में राजद और कांग्रेस का नेतृत्व है. एनडीए में जहां सियासी हैसियत के हिसाब बीजेपी और जेडीयू करीब-करीब बराबरी का हक रखती है हक रखती है. वहीं, महागठबंधन में कांग्रेस के राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद क्षेत्रीय दल राजद का वर्चस्व है. अब गठबंधन की शक्ति को देखें तो राजनीतिक जनाधार में कागज पर बराबर दिखते दोनों गठबंधनों में जमीनी स्तर पर बहुत बड़ा अंतर है. इस अंतर के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं. सीएम नीतीश एक ऐसी शख्सियत हैं जो वर्तमान में एनडीए की राजनीति के सबसे बड़े ‘फेस’ कहे जा सकते हैं.
नीतीश कुमार नाम भर नहीं, नरेटिव हैं…
दरअसल, नीतीश कुमार सिर्फ नाम नहीं एक नैरेटिव हैं…और इस ‘चेहरे’ को हर हाल में एनडीए की राजनीति का नेतृत्व करने वाली बीजेपी आगे रखना चाहती है. वर्तमान में देश और प्रदेश (बिहार) की राजनीति में बीजेपी नीतीश कुमार के ‘चेहरे’ को हर हाल में बचा कर रखना चाहती है. राजनीति के जानकार इसकी कई वजह बताते हैं. वरिष्ठ पत्रकार अशोक कुमार शर्मा कहते हैं, बीजेपी किसी भी तरह से नीतीश कुमार के इमेज को डैमेज नहीं देना चाहती है. यही कारण है कि लगातार नीतीश कुमार का गुणगान पीएम नरेंद्र मोदी से लेकर बीजेपी के तमाम दिग्गज नेता करते रहते हैं. यही नहीं नीतीश कुमार को लेकर अब एनडीए के अन्य घटक दल, जो (चिराग पासवान और जीतन राम मांझी सरीखे नेता) कल तक थोड़ा बहुत विरोध का स्वर भी मुखर करते थे, वह भी अब नीतीश कुमार के तारीफों पुल बांधते रहते हैं. ऐसा करने के पीछे बिहार की वो सियासत है जिसमें कहा जाता है कि- जाति है कि जाती नहीं, यानी बिहार की प्योर कास्ट पॉलिटिक्स.
नीतीश के ‘फेस’ में लालू की हर रणनीति की काट
बिहार की राजनीति को जानने वाले यह खुले तौर पर कहते हैं कि लालू प्रसाद यादव की हमेशा से इच्छा रहती है कि नीतीश कुमार उनके कुनबे में रहें. उनकी राजनीति का आधार प्योर कास्ट बेस्ड है. यही वो आधार है जो नीतीश कुमार के इधर-उधर होने से हिल जाता है और लालू यादव का कुनबा बीच के कुछ कालखंड (2015-16-17 में करीब 20 महीने और 2022-23 में करीब 17 महीने की राजद-जदयू की महागठबंधन सरकार) को छोड़ दें तो सत्ता से बाहर ही रहा है. अशोक कुमार शर्मा कहते हैं कि लालू यादव की आरजेडी की राजनीति को खतरा बीजेपी से है क्योंकि वह जातीय आधार पर सामाजिक समीकरण तो बनाती है, लेकिन सामाजिक समरसता की बात भी करती है. बीजेपी सर्व समाज (विशेषकर हिंदुओं की एकता की बात) की राजनीति के बूते अपना राजनीतिक आधार मजबूत करती जा रही है, वहीं लालू यादव की हमेशा से कोशिश रही है कि बीजेपी, बनियों और ब्राह्मणों की पार्टी के तौर पर पहचानी जाए. बस यहीं नीतीश कुमार का फर्क पड़ जाता है.



बीजेपी के ‘आधार’ को पुख्ता करता नीतीश का ‘चेहरा’
दरअसल, लालू प्रसाद यादव बीजेपी को सवर्णों की पार्टी बताने की रणनीति पर चलते हैं तो बीजेपी नीतीश कुमार के ‘फेस’ को आगे करके चलती है. लालू यादव पूरा जोर लगाते हैं, लेकिन नीतीश कुमार के साथ होने के साथ ही बीजेपी की वह छवि (जो लालू यादव बताना चाहते हैं) बिल्कुल ही खत्म हो जाती है. अति पिछड़ा और महादलित वोट का आधार नीतीश कुमार को वह ‘चेहरा’ बना देता है जो बिहार में बीजेपी के राजनीतिक आधार को पुख्ता करता चला जाता है और सत्ता का समीकरण सध जाता है. वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय कहते हैं कि बिहार की राजनीति का यह हीककत है कि तीन प्रमुख दल-राजद, बीजेपी और जेडीयू में से दो दल जिधर होंगे उसकी ही बिहार में सत्ता रहेगी. इसके पीछे की वजह यह है कि लालू प्रसाद यादव, मुस्लिम और यादव के अतिरिक्त अन्य जातियों का बहुत ही छोटा हिस्सा अपने साथ जोड़ पाते हैं. मुस्लिम-यादव के साथ कुछ अन्य जातियों के वोट मिलते तो हैं, लेकिन सत्ता को साधने का वह ‘चंक’ नहीं बन पाता है जो सीटों के गणित को चाहिये.
लालू यादव की अड़चन तो बीजेपी की राह आसान करते नीतीश
वहीं, दूसरी ओर बीजेपी-जेडीयू के जुड़ने से एनडीए सवर्ण-अति पिछड़ा समीकरण के साथ नीतीश के ‘चेहरे’ पिछड़े वर्ग (यादव को छोड़कर) के कारण करीब 65 से 70 प्रतिशत आबादी की पार्टी बन जाती है. यही कारण है कि अति पिछड़ा समुदाय को पर लालू प्रसाद यादव की नजर टिकी रहती है. यही कारण है कि कभी उपेंद्र कुशवाहा तो कभी मुकेश सहनी जैसे नेताओं से वह गठबंधन करते रहे हैं. जीतन राम मांझी जैसे नेताओं को भी साथ लिया, लेकिन सत्ता की डगर नहीं साध पाए तो इसकी वजह नीतीश कुमार ही रहे. रवि उपाध्याय कहते हैं, बीते 2020 के विधानसभा चुनाव में जिस प्रकार तेजस्वी यादव जिस तरह उम्मीदों की राजनीति के बूते आगे बढ़े थे, उनको सभी समाज का थोड़ा-थोड़ा वोट मिला था. बावजूद इसके बहुमत से 12 सीट दूर ही रह गए थे. लोकसभा चुनाव 2019 में कुशवाहा वोट में सेंधमारी की कवायद भी किये और इस समीकरण को अपने हक में करने के लिए कई कैंडिडेट लालू यादव ने दिये थे. इसका नतीजा थोड़ा सकारात्मक दिखा, लेकिन यादव-मुस्लिम के अलावा एक भी तीसरे बड़ा कास्ट चंक को वह पूरी तरह अपने साथ नहीं जोड़ सके. जाहिर तौर पर इसकी बड़ी वजह नीतीश कुमार ही रहे.
लालू यादव की आरजेडी के आधार को किस बात से खतरा?
तमाम नेगेटिव प्रचार के बाद भी बिहार में नीतीश कुमार के ‘फेस’ के बूते 2019 में बिहार ने एनडीए को मजबूत बनाए रखा और 40 में 30 सीटों पर विजय प्राप्त हुई. नकारात्मक माहौल में 75 प्रतिशत नतीजे के साथ सत्ता में वापसी एनडीए के लिए बड़ी बात तब दिखी जब बीजेपी 240 सीटों पर सिमट कर रह गई और एनडीए भी पिछले 351 सीटों की जगह 293 सीटों पर आ गई. जाहिर है एनडीए की सरकार तभी स्मूथ चल पा रही है जब नीतीश कुमार का साथ है. वहीं, तेजस्वी यादव को भी अहसास है कि भाजपा और जदयू का गठबंधन बहुत मजबूत है. तेजस्वी यादव और लालू प्रसाद यादव, मुस्लिम-यादव समीकरण के इंटैक्ट (एकजुट) रहने पर भी खतरा लगता है, क्योंकि लोकसभा चुनाव में जहां कई जगहों पर यादवों ने बीजेपी को भी वोट किया, वहीं मुस्लिम वोट बैंक पर भी असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेता अपनी राजनीति कर जाते हैं. अब तो प्रशांत किशोर भी आ गए हैं जिन्होंने उपचुनाव में अपने लिए अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं किया, लेकिन राजद का खेल बिगाड़ने में कामयाब रहे और राजद अपनी परंपरागत सीट भी गंवा बैठा और चार की चार सीटों पर उसे हार मिली.
ऐसे में जाहिर है कि नीतीश कुमार के चेहरे का महत्व जहां, एनडीए के नेता बखूबी बूझते हैं, वहीं लालू यादव को भी इसका अनुभव है. 2020 में तेजस्वी यादव बिहार का मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए थे. लेकिन, बाद में नीतीश कुमार के साथ रहे और सरकार में रहते नीतीश कुमार ने कहा था कि तेजस्वी यादव बिहार का भविष्य है. तब तेजस्वी को लगा था कि नीतीश कुमार उनको मुख्यमंत्री बना देंगे, लेकिन वह एनडीए में चले गए. स्पष्ट है इससे तेजस्वी यादव खार खाए हुए हैं, लेकिन बिहार की जाति की रानजीति में लालू यादव को नीतीश कुमार के ‘चेहरे’ महत्व बखूबी पता है. साफ है कि जैसे लालू यादव को नीतीश कुमार के ‘फेस’ का महत्व का मालूम है, ठीक उसी तरह भाजपा भी नीतीश कुमार के ‘चेहरे’ को अपना सबसे ‘अचूक हथियार’ मानती है. यह हथियार आज से नहीं, बल्कि 2005 से अब तक बीजेपी कई बार आजमा चुकी है और अब तो नीतीश के ‘फेस’ को ‘फेस’ भर नहीं मान रही बल्कि ‘ईश्वर’ तक मानने पर उतर आई है.